हमारे शहर लखनऊ में पुराने अमीरों के घरों में बहुत सा ऐसा सामान होता है जिसकी कद्रदान अच्छी क़ीमत लगाते हैं.
जिनका
घर है उनके काम का भी नहीं रह गया है और जो पैसा आएगा उससे उनका गुजारा भी
चलेगा. मगर दिक्कत ये है कि वो अपना सामान लेकर बाजार भी नहीं जा सकते और खरीदार को घर भी नहीं बुला सकते क्योंकि इससे तो इज्जत ही चली जाएगी. तो
होता ये है कि कोई होशियार सौदागर आकर कुछ पैसे पकड़ाता है और रात के
अंधेरे में चुपचाप वो सामान घर से यूं विदा होता है कि कोई देख न ले. जाहिर
है हजारों का माल कौड़ियों में जाता है और लाखों का हजारों में. हमें अपने शहर का पता है, और शहरों में भी ऐसे किस्से कम नहीं हैं.उन्हें भी खूब पता है कि यही सामान कुछ ही दिनों में उनको मिले पैसे से कई गुना कीमत पर बिकने लगेगा. लेकिन करें तो क्या करें. इज्जत का सवाल है. लोग क्या कहेंगे, बाप दादा की विरासत बेचकर घर चला रहे हो! अंग्रेजी में भी फैमिली सिल्वर बेचने को गाली जैसा ही माना जाता है. घर भी चलाना है, इज्जत भी बचानी है, और बदकिस्मती से कमाई का कोई जरिया नहीं क्योंकि
ये सबसे बड़ी वजह है कि 28 साल बाद भी सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचने पर बहस चल रही है. जिस कॉंग्रेस के राज में ये फैसला हुआ, वो भी हर बार हिस्सेदारी बेचने पर यूं सवाल उठाती है जैसे बहू के कुछ करने पर सास को धर्मपूर्वक उठाना ही होता था.
इस बार बीपीसीएल यानी भारत पेट्रोलियम में करीब 53 परसेंट, शिपिंग कॉर्पोरेशन में 67 परसेंट और कंटेनर कॉर्पोरेशन में करीब 31 परसेंट हिस्सा बेचने का फ़ैसला हुआ है. बुधवार को यानी जिस दिन फ़ैसला हुआ उस दिन के बाजार भाव पर ये हिस्सेदारी करीब चौरासी हजार करोड़ रुपए में बिकती. लेकिन अगले ही दिन इसमें करीब पांच परसेंट की गिरावट आ चुकी थी.ऐसे किस्से पहले भी कई बार हुए हैं. सरकार बेचने का इरादा जताती है और दाम गिरने लगते हैं. इसका इलाज भी है. लेकिन फिलहाल बात फैसले पर विवाद की.
बीपीसीएल में हिस्सेदारी बेचने के सवाल पर कॉंग्रेस के युवा नेता मिलिंद देवड़ा ने सवाल उठाया है कि घाटे में दबी एयर इंडिया और बीएसएनएल जैसी कंपनियों को बेचने में नाकाम सरकार बीपीसीएल जैसी नवरत्न कंपनी को क्यों बेच रही है. इसका एक सीधा जवाब तो यही है कि बाज़ार में जिस चीज की कीमत अच्छी मिले उसे बेचना ही समझदारी है. लेकिन इसका एक जवाब और भी है.और उसके लिए बीपीसीएल के इतिहास में जाना होगा.
बीपीसीएल भारत सरकार की बनाई हुई कंपनी नहीं है. 1974 तक देश भर में जो पेट्रोल पंप दिखते थे उनपर इंडियन ऑयल, बर्मा शेल, कालटेक्स और एस्सो के बोर्ड सबसे ज़्यादा नज़र आते थे.दो और कंपनियां भी थीं असम ऑयल और इंडो बर्मा पेट्रोलियम. लेकिन इनके बोर्ड कम दिखते थे. 1974 में एक दिन एस्सो के बोर्ड बदलकर एच पी हो गए.
उसके बाद बर्मा शेल की जगह बीपीसीएल ने ले ली और कुछ ही समय में या साथ साथ कालटेक्स भी बीपीसीएल में ही विलय हो गई. ये था पेट्रोलियम कंपनियों का राष्ट्रीयकरण. उधर इंडो बर्मा पेट्रोलियम 1970 में ही इंडियन ऑयल का हिस्सा बन चुकी थी. लेकिन 1974 में इसे फिर एक अलग सरकारी कंपनी बना दिया गया.
तो अब सवाल ये है कि अगर 1974 तक पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की मार्केटिंग का काम प्राइवेट कंपनियां कर रही थीं तो आज क्यों नहीं कर सकतीं? और अगर सरकार दूसरी कंपनियों को इस धंधे में उतरने की इजाज़त दे रही है, तो आज ही अच्छे दाम मिलने पर ये कंपनी बेच देने में क्या ग़लत है? क्या चाहते हैं कि एयर इंडिया और बीएसएनएल जैसा हाल हो जाए कि जब बेचने निकलें तो ख़रीदार न मिले?
हिस्सेदारी बेचने का एक दूसरा तरीका भी है. जो आईटीडीसी के होटलों की बिक्री में आजमाया गया. सीलबंद लिफाफे वाली नीलामी. सरकार ने अलग अलग होटलों के टेंडर निकाले, सीलबंद बोलियां आईं. खोली गईं और सबसे ऊंचे दाम लगानेवाले को होटल बेच दिया गया. वाजपेयी सरकार के दौरान हुई इन बिक्रियों पर भारी विवाद खड़ा हुआ.
कहीं कौड़ियों के मोल पर बिकने का आरोप है तो कहीं खरीदार ने कुछ ही दिनों में वही होटल कई गुना दाम पर दूसरे को बेच दिया. और ये तब जबकि जानेमाने आर्थिक विशेषज्ञ और न जाने कितने घोटालों का पर्दाफाश करनेवाले मशहूर पत्रकार अरुण शौरी विनिवेश मंत्री थे. यानी ख़ास तौर पर एक मंत्रालय बना हुआ था सरकारी कंपनियां या कंपनियों की संपत्ति या कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने के लिए.
यहां दाल में कुछ काला तो ज़रूर था. भारी हंगामा हुआ और जांच बैठी. मुंबई में जुहू का सेंटॉर होटल तो अभी तक ठीक से खुल नहीं पाया है. नाम और मिल्कियकत बदलने के बाद से तरह तरह के मामलों में अटका हुआ है.
औलाद या तो है नहीं, या नालायक है.
भारत सरकार और डिसइन्वेस्टमेंट यानी सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. दिखने में आसान लगती है मगर खोलते चलो तो पर्त दर पर्त पेंच पर पेंच निकलते चलते हैं. एक सवाल का जवाब देंगे तो तीन नए सवाल खड़े होंगे. तो बात शुरू से ही शुरू करनी पड़ेगी.
1991 में जब भारत में आर्थिक सुधार हुए तब ये बात मान तो ली गई कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है.लेकिन ये बात न सरकार में बैठे लोगों को ही ठीक से हजम हुई और न वो इस देश को यकीन दिला सके कि ऐसा करना ही देश के हित में है.फिर उन्हें ये समझने में भी बहुत मुश्किल हुई कि किस काम को बिजनेस माना जाए और किसे राष्ट्रहित. यानी एयर इंडिया, बीएसएनएल, एचएएल और एचपीसीएल, बीपीसीएल को प्राइवेट हाथों में कैसे दे दिया जाए?